Tuesday, September 22, 2020

घर पर किचन गार्डन की ऐसे करे शुरुआत |

आपके पास जमीन है तो क्यारी के लिए जमीन को 70-75 सेंटीमीटर गहरा खोदकर मिट्टी बाहर निकाल लें और 2-3 दिनों तक धूप में खुला छोड़ दें। इससे मिट्टी में मौजूद कीड़े-मकोड़े और फफूंद खत्म हो जाएगी ।यदि आप छत पर किचन गार्डन बनाना चाहते हैं तो वहां पर एक निश्चित  एरिया में पॉलीथिन बिछाकर ईंटों से घेरकर क्यारी बना लें। पॉलीथिन में कुछ छेद कर दें जिस से पानी की जयदा मात्रा होने पर वह बाहर निकल जाए। आपके पास जमीन या छत नहीं है तो आप बालकनी में भी अपना किचन गार्डन तैयार कर सकते हैं। ध्यान रखें कि जिस बालकनी में धूप आती हो, वहीं पर किचन गार्डन बनाएं।


यदि आपके पास इन सभी व्यवस्थाओ की सुविधा नहीं है और जगह की बहुत दिक्कत है तो आप पौधों के लिए स्टैंड भी तैयार करा सकते हैं। जो करीब 4 फुट चौड़े और 5 फुट चौड़ा हो  इसमें सब्जियां आसानी से उगाई जा सकती हैं। साथ ही साथ आप छोटे और चौड़े गमले, प्लास्टिक की ट्रे, पुरानी बाल्टी, टब, खाली ड्रम आदि को भी सब्जियां लगाने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं।

हालांकि मिट्टी के गमलों को पौधे लगाने के लिए सबसे अच्छा माना जाता है क्योंकि इनमें हवा आरपार होती है। लेकिन साथ ही साथ इनके टूटने का खतरा भी अधिक होता है। सीमेंट के गमले या तारकोल के ड्रम आदि का इस्तेमाल भी किया जा सकता हैं। प्लास्टिक के गमलों से बचना चाहिए  क्योंकि इनमें हवा न आने से पौधों का पूरा विकास पूर्ण  पाता है । गमलों पर केमिकल पेंट की जगह गेरू का इस्तेमाल कर सकते हैं। छोटे पौधों को 8 इंच, मझोले पौधों को 10 इंच और बड़े पौधों को 12 इंच के गमलों में रखें तो बेहतर होगा।

मिट्टी  तैयार करने का तरीका 

अमूमन क्यारी या गमलों की तैयारी सितंबर के आखिर और फरवरी के शुरू मै ही करनी चाहिए। यह बुवाई के लिए सही वक्त है।मिट्टी खेतों से मंगाएं या फिर पार्क आदि से भी ले सकते हैं। अगर मिट्टी में कीड़े हैं तो वर्मी कंपोस्ट यानी केंचुए की खाद मिलाएं। मिट्टी तैयार करते हुए 2 हिस्से मिट्टी, 1 हिस्सा गोबर की सूखी खाद और 1 हिस्सा सूखी पत्तियों का रखें। इन्हें अच्छी तरह मिला लें। थोड़ी-सी रेत भी मिला लें।


तैयार मिट्टी को अच्छी तरह मिलाकर क्यारी में भर दें। क्यारी को ऊपर से करीब 15 सेंमी खाली रखें। इसी तरह गमलों को तैयार करें। तैयार मिट्टी को गमलों में भरने से पहले गमले के बॉटम में (जहां पानी निकलने की जगह बनी होती है) पॉट के टूटे हुए टुकड़े या छोटे पत्थर रखें, ताकि पानी के साथ मिट्टी का पोषण बाहर न निकले। गमले का एक तिहाई हिस्सा खाली रहना चाहिए, ताकि पानी डालने पर इसमें ऊपर से मिट्टी और खाद बाहर बहकर न निकले।

फिर मिट्टी में बीज लगाएं। जब भी कोई बीज रोपें, इसे इसके आकार की दोगुना मोटी मिट्टी की परत के नीचे तक ही भीतर डालें वरना अंकुर फूटने में लंबा वक्त लगेगा और कोंपल के बाहर आने में हफ्तों लग जाएंगे। मिट्टी डालने के बाद हल्का पानी डाल दें। इसके बाद गमलों को कागज से ढक दें ताकि पक्षी बीजों को न निकाल पाएं। अंकुर निकलने के बाद कागज को हटा लें। अगर पौधों को दूसरे गमले में लगाना है तो शाम या रात को यानी ठंडे वक्त पर ट्रांसफर करें और तब करें, जब पौधों में 4-6 पत्तियां आ चुकी हों।


बीज कहां से लें

फल या सब्जियां उगाने के लिए हमेशा नैचरल ब्रीडिंग वाले बीजों का इस्तेमाल करें, न कि हाइब्रिड बीजों का।बीज पड़ोस की नर्सरी या बीज की दुकान से खरीद सकते हैं लेकिन किसी सरकारी संस्थान या ऐसी जगह से लेना बेहतर है, जिसे अच्छे बीजों के लिए जाना जाता है 
ऑनलाइन साइट्स से भी बीज मंगा सकते हैं। 


कौन-से फल-सब्जियां लगाएं

शुरुआत में आसानी से उगने वाली सब्जियां या फल उगाकर आप धीरे-धीरे गार्डनिंग की तकनीक सीख जाएंगे। आसानी से उगनेवाली सब्जियां हैं: मिर्च, भिंडी, टमाटर और बैंगन। ये 45 दिनों के भीतर तैयार हो जाती हैं। पालक, बींस, पुदीना, धनिया, करी पत्ता, तुलसी, पुदीना, मेथी, टमाटर और बैंगन जैसी सब्जियां किसी भी पॉट या छोटे गमले में आप बालकनी में आसानी से उगा सकते हैं। करेला और खीरा जैसी सब्जियों की बेलें न सिर्फ आपको फल देंगी बल्कि आपकी बालकनी की खूबसूरती भी बढ़ाएंगी। इनमें 45-50 दिन में सब्जियां आने लगती हैं। एक बार शुरुआत करने पर आप प्याज, आलू, बींस, पत्तागोभी, शिमला मिर्च जैसी तमाम सब्जियां उगा सकते हैं।

सब्जियां

सर्दियां: मूली, गाजर, टमाटर, गोभी, पत्तागोभी, पालक, मेथी, लहसुन, बैंगन, मटर आदि। ये सभी सब्जियां अक्टूबर, नवंबर में लगाई जाती हैं।

गर्मियां: करेला, भिंडी, घीया, तोरी, टिंडा, लोबिया, ककड़ी आदि। ककड़ी व बैंगन जनवरी के आखिर तक लगा दें, जबकि बाकी सब्जियां फरवरी-मार्च में लगाएं।



कितना पानी, कितनी धूप जरूरी
किसी भी पौधे के लिए धूप बहुत जरूरी है। यह नियम सब्जियों के पौधों पर भी लागू होता है। अंकुर फूटते समय बीजों को धूप लगना जरूरी है। ऐसा न करने पर ये आकार में छोटे और कमजोर रह जाएंगे। रोजाना 3-4 घंटे की धूप काफी है लेकिन गर्मियों में दोपहर की कड़ी धूप से पौधों को बचाएं। इसके लिए पौधों के थोड़ा ऊपर एक जालीदार शेड बनवा दें तो बेहतर है।

ज्यादा पानी से मिट्टी के कणों के बीच मौजूद ऑक्सिजन पौधों की जड़ों को नहीं पहुंच पाती इसलिए जब गमले सूखे लगें, तभी पानी डालें। मौसम का भी ध्यान रखें। सर्दियों में हर चौथे-पांचवें दिन और गर्मियों में हर दूसरे दिन पानी डालना चाहिए। बारिश वाले और उससे अगले दिन पौधों में पानी देने की जरूरत नहीं होती।

पानी सुबह या शाम के वक्त ही देना चाहिए। भूलकर भी तेज धूप में पौधों में पानी न डालें। इससे पौधों के झुलसने का खतरा रहता है।

अगर किसी वजह से पौधों को अकेला छोड़कर कुछ दिनों के लिए बाहर जाना पड़े, तो उनके गमलों में पानी ऊपर तक भर दें। गर्मियों में गमलों को किसी टब में रखकर, टब में भी थोड़ा पानी भर दें।

अगर 10-15 दिनों के लिए घर से बाहर जा रहे हैं तो जाने से पहले गमले या पॉट में लीचन/मॉस (तालाब में उगने वाले कुछ खास पौधे जो नर्सरी से मिल जाएंगे) को अच्छी तरह बिछा कर पानी डालें। इससे लंबे समय तक पौधों में नमी बनी रहेगी।

खाद की मात्रा 
किसी भी पौधे को ज्यादा खाद की जरूरत नहीं होती। आमतौर पर पौधे लगाते समय और दोबारा उनमें फल-फूल या सब्जी आते समय खाद दी जाती है। खाद हमेशा जैविक (ऑर्गनिक) ही इस्तेमाल करें। यह खाद जीवों से बनती है, जैसे गोबर की खाद, पशुओं-मनुष्यों के मल-मूत्र से बनने वाली खाद आदि। इनमें हानिकारक केमिकल्स नहीं होते।

नीम, सरसों या मूंगफली की खली भी खाद के रूप में इस्तेमाल की जाती है। इनमें प्रोटीन की मात्रा ज्यादा होती है।

किसी अच्छी नर्सरी से ऑर्गेनिक खाद के पैकेट मिल जाते हैं। यह आमतौर पर 40 से 80 रुपये प्रति किलो के हिसाब से मिलती है।



आप खुद भी तैयार कर सकते है खाद

कंपोस्ट यानी कूड़े से बनी खाद (आप इसे नर्सरी से खरीद सकते हैं या खुद भी बना सकते हैं), लाल मिट्टी, रेत और गोबर की खाद बराबर मात्रा में मिलाएं। अगर जगह हो तो कच्ची जमीन में एक गहरा गड्ढा खोदें, वरना एक बड़ा मिट्टी का गमला लें। इसके तले में मिट्टी की मोटी परत डालें। इसके ऊपर किचन से निकलने वाले सब्जियों और फलों के मुलायम छिलके और गूदा डालें। अगर यह कचरा काफी गीला है तो इसके ऊपर सूखे पत्ते या अखबार डाल दें। इसके ऊपर मिट्टी की मोटी परत डालकर ढक दें। गड्ढा या गमला भरने तक ऐसा करते रहें। इस मिश्रण के गलकर एक-तिहाई कम होने तक इंतजार करें। इसमें तकरीबन 3 महीने लगते हैं। अब इस खाद को निकालकर किसी दूसरे गमले में मिट्टी की परतों के बीच दबाकर सूखे पत्तों से ढककर रख दें। 15 से 20 दिन में यह खाद इस्तेमाल के लिए पूरी तरह तैयार हो जाएगी। मिट्टी के साथ मिलाकर सब्जियां और फल उगाने के लिए इसका इस्तेमाल करें। खाली हुए गड्ढे या गमले में खाद बनाने की प्रक्रिया दोहराते रहें।

बाजार से सरसों की खली खरीदकर लाएं। खली को पौधों में डालने के लिए इस तरह पानी में भिगोकर रात भर रखें कि अगले दिन वह एक गाढ़े पेस्ट के रूप में तैयार हो जाए। इस पेस्ट को मिट्टी में अच्छी तरह से मिलाकर इसे अपने गमलों में डालें। मिट्टी और खली का अनुपात 10:1 होना चाहिए यानी 10 किलो मिट्टी में 1 किलो खली मिलाएं। इसे गमलों में डालने के बाद मिट्टी की गुड़ाई कर दें ताकि खली वाली मिट्टी गमले की मिट्टी के साथ मिल जाए।

कीड़ों से पोधो को ऐसे बचाये 

मार्केट में नीम खली या नीम का तेल आता है। पैकेट पर लिखी मात्रा के अनुसार पानी में मिलाकर इस्तेमाल करें। इससे कीड़े मर जाते हैं।आप स्वयं भी कीड़े मारने की दवा तैयार कर सकते हैं। गोमूत्र, गाय के दूध से बनी लस्सी बराबर मात्रा ले लें। फिर इसमें थोड़े-से नीम के पत्ते, आक के पत्ते और धतूरे के बीज कूटकर डाल दें। सर्दियों में 15-20 दिन और गर्मियों में एक हफ्ता छोड़ दें। फिर छान लें और स्प्रे बोतल में भर लें। एक हिस्सा दवा लें और 50 हिस्सा पानी। फिर पौधों पर छिड़काव करें। यह दवा कीड़े मारने के अलावा, फंगस को दूर करती है।



कुछ अन्य सुझाव 
गमलों या क्यारियों की मिट्टी में हवा और पानी अच्छी तरह मिलता रहे, इसके लिए पौधों की गुड़ाई करना जरूरी है। गमलों की मिट्टी में उंगली गाड़कर देखें। अगर मिट्टी बहुत सख्त है तो गुड़ाई करें। कम-से-कम महीने में एक बार मिट्टी की गुड़ाई करें।

बारिश खत्म होने के बाद हर साल अगस्त-सितंबर में सारे पौधों की जड़ें निकाल दें और उन जड़ों को मिट्टी में ही मिला दें। इसे पौधा बड़ा होता रहेगा लेकिन उसकी जड़ें नहीं फैलेंगी।

अंडों और फलों के छिलकों को भी मिट्टी में डाल सकते हैं। इससे पौधों को पोषण मिलता है।

एस्प्रिन की गोली पौधों को सुरक्षा कवच देती है और फंगस का बनना रोकती है। साथ ही, ग्रोथ भी बढ़ाती है। एक डिस्प्रिन करीब एक मग पानी में मिलाएं और पौधों पर स्प्रे करें।

गार्डनिंग का गणित
1 स्क्वेयर मीटर = हर साल औसतन 25-35 किलो सब्जियां
अगर सही ढंग से किचन गार्डनिंग की जाए तो 1 स्क्वेयर मीटर जगह में आप सालाना 25 से 35 किलो मनचाही सब्जियां और फल उगा सकते हैं।

छत पर बनाएं गार्डन
अगर आप घर बनवा रहे हैं और आपकी इच्छा टेरस गार्डनन बनाने की है तो कुछ बातों का ख्याल रखेंगे तो आगे जाकर सीलन और दूसरी परेशानियों से बच जाएंगे। इसके लिए छत बनवाते वक्त ही कंक्रीट में वॉटर प्रूफिंग के लिए केमिकल कोटिंग करते हैं, वहीं कुछ लोग मेंब्रेनन शीट लगाते हैं। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि मेंब्रेन शीट का खर्च केमिकल कोटिंग से तीन-चार गुना ज्यादा बैठता है। आजकल वॉटर प्रूफिंग के लिए 10 रुपये प्रति स्क्वेयर फुट का अतिरिक्त खर्च आता है, वहीं मेंब्रेन शीट के लिए यह 30 से 40 रुपये प्रति स्क्वेयर फुट लगेगा। कोटिंग या मेंब्रेन शीट लगाने के बाद प्लास्टर की प्रोटेक्शन की जाती है। इसके बाद ड्रेन बोर्ड (प्लास्टिक की शीट) लगाई जाती है। और सबसे ऊपर जियोटेक्सटाइल क्लॉथ लगाते हैं। आखिर काम है इसके ऊपर मिट्टी और खाद डालने का। ध्यान देने वाली बात यह है कि प्लास्टर करते समय ही एक ड्रेनेज सिस्टम भी बनाना होता है ताकि अगर बारिश हो तो अतिरिक्त पानी गार्डन में जमा न हो। साइट इंजीनियर पी. एन. सिंह बताते हैं कि अगर छत 15 या 20 साल से ज्यादा पुरानी है तो छत पर ज्यादा मिट्टी डालना ठीक नहीं है। पहले आप किसी आर्किटेक्ट या स्ट्रक्चर इंजीनियर को बुलाकर छत दिखा दें। अगर उनका सुझाव हो कि छत को गार्डनिंग के लिए तैयार किया जा सकता है। जहां तक टेरस पर गमलों को रखने की बात है तो इसमें ज्यादा समस्या नहीं है। 100-125 किलो (मिट्टी समेत कुल वजन) वजन रख सकते हैं।




Thursday, August 27, 2020

तीन महीने में एक हेक्टेयर से ढाई से तीन लाख तक कमा सकते है इस फसल से ।

तीन महीने में एक हेक्टेयर से ढाई से तीन  लाख तक कमा  सकते है इस  फसल से

 खेती की बढ़ती लागत को देखते हुए किसान अब केवल वही  फसलें उगाना चाहते हैं, जिनसे ज्यादा मुनाफा हो। फूलों की खेती और सब्जियों के बाद औषधीय फसलें किसानों की पसंद बनती जा रही हैं। ऐसी ही एक नकदी फसल ईसबगोल की  है। किसानों के मुताबिक इसमें एक हेक्टेयर में ही ढाई से तीन  लाख की कमाई हो हो सकती है, जबकि खर्चा काफी कम होता है।

ईसबगोल एक औषधीय फसल है। औषधीय फसलों के निर्यात में इसका प्रथम स्थान हैं। ईसबगोल की खेती से दस हजार  से पंद्रह हजार  निवेश करने के बाद तीन से चार महीने में ही ढाई  लाख से तीन  लाख रुपए तक किसान कमा रहे हैं। मेडिसिनल प्लांट फार्मिंग से जुड़े व्यापर हमेशा से ही लाभदायक मौके रहे हैं जिसमें कम पैसे लगाकर अधिकतम आय हासिल की जा सकती है और इसी व्यापर से जुडी  है ईसबगोल की खेती ।

भारत में इसका उत्पादन मुख्य रूप से गुजरात, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश में करीब पचास  हजार हेक्टयर में हो रहा हैं। मध्य प्रदेश में नीमच, रतलाम, मंदसौर, उज्जैन एवं शाजापुर जिले प्रमुख हैं।


ईसबगोल की खेती करने का तरीका
जलवायु :- फसल की अच्छी पैदावार के लिए ठंडा व शुष्क वातावरण तथा पकाव के समय शुष्क मौसम की आवश्यकता रहती है। पकाव के समय वर्षा होने पर बीज झड़ जाता हैतथा छिलका फूल जाता है, इससे बीज की गुणवत्ता व पैदावार दोनों पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

जमीन  :- ईसबगोल की खेती केलिए हल्की दोमट मिट्टी, बलुई मिट्टी जिसमें पानी का निकास अच्छा हो उपयुक्त रहती है। चिकनी हल्की काली व ज्यादा काली मिट्टी जिसमें पानी का निकास अच्छा हो वो भी उपयुक्त रहती है।

जमीन  की तैयारी :- दो या तीन बार  देसी हल से जुताई करें। मिट्टी को भुरभुरा बनाकर पाटा  लगा दें। खेत को समतल करें ताकि कहीं भी पानी भरा न रह सके।

बिजाई का समय :- यह रबी मौसम की फसल है तथा इसकी बिजाई का उपयुक्त समय अक्टूबर से नवंबर माह होता है।

बिजाई का तरीका व बीज की मात्रा :- बीज को अच्छी नमी वाले खेत में डेढ़ किलोग्राम एक  एकड़ की दर से छिडक़कर उर्वरक के रूप में हल्का सुहागा का प्रयोग किया जाता है। इसको 22.5 सेमी. यानि 9 इंच के फासले पर लाइनों में भी बोया जाता है। बीज एक से दो सेंटीमीटर से अधिक गहरा नहीं गिरना चाहिए। तीन किलोग्राम बीज प्रति एकड़ में बिजाई के लिए काफी है।


खाद :- 18 किलोग्राम नाइट्रोजन व 6 किलोग्राम फासफोरस प्रति एकड़ में पर्याप्त रहता है। नाइट्रोजन दो भागो में डालना चाहिए। प्रथम खेत की तैयारी के समय, दूसरा पहली सिंचाई के बाद। संपूर्ण फासफोरस बिजाई से पहले ही मिट्टी में मिला दें।

सिंचाई :- बीज के जमाव के लिए पर्याप्त नमी का होना अत्यंत जरूरी है। अच्छा जमाव पर प्रथम सिंचाई 25-30 दिन बाद करें तथा उसके बाद दो बार सिंचाई क्रमश: एक महीने की अवधि पर करें। इस फसल में तीन बार सिंचाई पर्याप्त रहती है।

निराई व गुड़ाई :- फसल की धीमी बढ़वार व कम ऊंचाई होने के कारण प्रारंभिक अवस्था में दो-तीन गुड़ाई अवश्य करें ताकि खरपतवार फसल को नुकसान न पहुंचा सकें।

पौध संरक्षण :- कभी कभी जोगिया रोग मतलब डाऊनी मिल्ड्रयू फसल को नुकसान पहुंचा देता है। इसकी रोकथाम के लिए थायरम या सेरेंसान तीन ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करके बिजाई करनी चाहिए। बीमारी आने पर डाईथेन एम 45 या रेडोमिल का 0.2 प्रतिशत का घोल बनाकर 2 से 3 बार 15 दिन के अंतर पर छिडक़ें।

तीन से चार माह में तैयार हो जाती है फसल :- ईसबगोल की फसल 100 से 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है। पकने पर पत्ते पीले पड़ जाते हैं तथा सिरे भूरे रंग के हो जाते हैं। सिरों को अंगूठे व अंगुलियों से दबाने से बीज बाहर आ जाता है। अच्छी फसल से औसत पैदावार 4 से 5 क्विंटल तक ली जा सकती है।

प्रोसेसिंग के बाद मिलते हैं अधिक फायदे
अगर ईसबगोल के बीजों को प्रोसेस कराया जाए तो और ज्यादा फायदा होता है।  प्रोसेस होने के बाद ईसबगोल के बीजों में से लगभग तीस  प्रतिशत भूसी निकलती है और यही ईसबगोल की भूसी इसका सबसे महंगा हिस्सा माना जाता है। भारत के थोक बाजार में इस भूसी का रेट करीब पच्चीस हजार रुपये  प्रति क्विंटल माना जाता है। यानी कि एक हेक्टेयर में पैदा हुई फसल की भूसी का दाम सवा  लाख पर बैठता है। इसके अलावा ईसबगोल की खेती में से भूसी निकलने के बाद खली, गोली आदि अन्य उत्पाद बचते हैं जो करीब डेढ़ लाख रुपए तक में बिक जाते हैं।

औषधीय पौधों से विदेशी मुद्रा अर्जित करने में ईसबगोल प्रमुख उत्पाद  है।  इसके पौधे लगभग 30-50 सेमी. तक ऊँचे होते है तथा इनसे बीस  से तीस  कल्ले निकलते है। इसके बीज के ऊपर वाला छिलका जिसे भूसी कहते है इसी का औषधीय दवा के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसे ईसबगोल की भूसी कहा जाता है। इसकी भूसी में म्यूसीलेज होता है जिसमें जाईलेज, एरेबिनोज एवं ग्लेकटूरोनिक ऐसिड पाया जाता है। इसके बीजों में सत्रह  से उन्नीस प्रतिशत प्रोटीन होता है।

एक हेक्टेयर में ढाई लाख रुपए तक की हो जाती है कमाई
यदि हम एक हेक्टेयर खेती के आधार पर ही अनुमान लगाएं तो एक हेक्टेयर मैं ईसबगोल की फसल से लगभग पंद्रह  क्विंटल बीज प्राप्त होते हैं और अगर मंडी में इसके ताजा दामों को पता करें तो इस समय लगभग बारह हजार पांच सौ  रुपए प्रति क्विंटल का भाव मिल रहा है। इस प्रकार से देखा जाए तो केवल बीज ही एक लाख नब्बे हजार  रुपए के होते हैं। इसके अलावा सर्दियों में ईसबगोल के दाम बढ़ जाते हैं जिससे आमदनी और ज्यादा हो जाती है।

अस्सी  फीसदी बाजार पर है भारत का कब्जा
ईसबगोल एक मेडिसिनल प्लांट है। इसके बीज  का  अनेक  तरह की आयुर्वेदिक और एलोपैथिक दवाओं में उपयोग  होता है। विश्व के कुल उत्पादन का लगभग अस्सी  प्रतिशत केवल भारत में ही पैदा होता है।ईसबगोल की फसल नब्बे दिन से लेकर एक सौ पंद्रह  दिनों के अंदर ही पक कर तैयार हो जाती है जिसके बाद इस फसल को काटकर इसके बीजों को अलग कर लिया जाता है।



विदेशों में है इसकी भारी मांग
वर्तमान में हमारे देश से प्रतिवर्ष 120 करोड़ के मूल्य का ईसबगोल निर्यात हो रहा है। विश्व में ईसबगोल का सबसे बड़ा उपभोक्ता अमेरिका है। विश्व में इसके प्रमुख उत्पादक देश ईरान, ईराक, अरब अमीरात, भारत, फिलीपीन्स इत्यादि हैं। भारत का स्थान ईसबगोल उत्पादन एवं क्षेत्रफल में प्रथम है


Sunday, August 16, 2020

घर पर ही उगाए सेम फलियां।

 

हम अभी से कुछ ऐसी तैयारिया करते है कि सर्दियों के मौसम मै अपने गार्डन कि सब्जी खा सके तो इसी क्रम मै आज हम सेम को कैसे उगाये और उसकी कैसे देखभाल करे इस बारे मै बात करते है। 

सेम 

सेम गुणों से भरपूर सब्जी है । इसमें जो पोषक तत्व होते है उनके बारे मै आप को प्रति १०० ग्राम मै जो मात्रा रहती है उसकी   क्रमशः जानकारी दी गई है । 

प्रोटीन - 3 .8 ग्राम 

कार्बोहाइड्रेट- 6.7  ग्राम

वसा - 0.7  ग्राम

आयरन-1.70  ग्राम

गंधक - 40.00  ग्राम

ताँबा - 0.13  ग्राम

खनिज पदार्थ - 0.9  ग्राम

पोटेशियम - 74.00   ग्राम

कैलसियम - 210.00   ग्राम

मैगनीशियम - 34.00  ग्राम

कैलोरी - 48.00 ग्राम 

फ़ाइबर - 1.8  ग्राम


https://www.facebook.com/100914568167818/videos/301660074186382/

इसको आप अपने घर पर किसी भी गमले मै या अन्य किसी भी पॉट मै आसानी से ऊगा सकते है। इसे आप बीज से ऊगा सकते जो आप को किसी भी ऑनलाइन प्लेटफार्म पर आसानी से मिल जायेंगे। आप इसे अग के शुरुआत मै बोयेंगे तो आप को यह अक्टूबर मध्य तक फलिया देने लगेगी। यह बेल के रूप मै बढ़ती है। और इसका एक - दो ही पौधा आपके परिवार के पर्याप्त रहेगा इसलिए इसको ऐसी जगह लगाए जहा यह लता के रूप आगे बाद सके।

मिट्टी के तैयारी

इसके लिए  मिट्टी आप उसी तरह से तैयार करे जैसे अन्य पोधो के  लिए  करते है। मिट्टी मै पानी अधिक समय तक रुका नहीं रहना चाहिए। 


आने वाले रोग 

इस पर मुख्यतः १ - माहू

                      २ - फली छेदक 

इस तरह के रोग आते है। जिन्हे आप घर पर बनाये गए कीटनाशकों द्वारा कंट्रोल कर सकते है

आप इस लिंक पर जाकर घर पर ही कीटनाशक बना सकते है। 

https://www.facebook.com/100914568167818/videos/700365774062144/

उपचार 

वैसे तो घर पर बने जैव कीटनाशकों का प्रयोग कर सकते है। अगर फिर भी रोग नियंत्रित नहीं होते तो आप मैलथियान 50 E.स का भी प्रयोग कर सकते है। 

Wednesday, August 12, 2020

गहत , कुलथ के औषधीय फायदे और खेती |

कुलथ की खेती दलहन फसल के रूप में की जाती है ।

कर्नाटक व आंध्र प्रदेश में खुदाई से कुलथ के दाल के दानें मिले हैं, जिसकी समय अवधि 2000 BC मानी गयी है । भारत में इसकी खेती पूरे दक्षिण भारत के अतिरिक्त पश्चिम बंगाल , बिहार , महाराष्ट्र और उत्तराखण्ड में की जाती है । इसे अलग अलग जगहों पर कुलथ, खरथी, गराहट, हुलगा, गहत और आदि कई नामों से भी जाना जाता है वैसे इसका वैज्ञानिक नाम मैक्रोटिलोमा यूनिफ्लोरम है ।यह एक गहरे भूरे मसूर की तरह होता है जिसका आकार गोल और चपटा होता है। यह एक प्रकार से लगभग सेम की तरह होता है। कुलथी दाल को मवेशियों के चारे (cattle feed) और घोड़े को खिलाने के लिए के रूप में प्रयोग किया जाता है। लेकिन इसके औषधीय गुणों के कारण इसे पूरे भारत में भोजन, अंकुरित या पूरे अनाज (whole seed) के रूप में उपयोग किया जाता है। कुल्थी के दानों का इस्तेमाल सब्जी बनाने में भी किया जाता हैं ।  कुलथ की दाल में प्रोटीन बहुत होता है ।  साथ हीं इसमें कैल्शियम,  फासफोरस, आयरन , कार्बोहाइड्रेट और फाइबर भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है । चिकित्‍सकीय प्रभाव होने के कारण इसको  बवासीर, एडीमा आदि के उपचार में उपयोग किया जाता है लेकिन इसे चिकित्‍सकीय रूप से प्रमाणित नहीं किया गया है। फिर भी इसके पोषक तत्‍वों (Nutrients) की मौजूदगी के कारण आयुर्वेदिक दवाओं में कुलथी दाल का उपयोग किया जाता है।


कुलथ दाल के पोषक तत्‍व

पोषक तत्‍वों (Nutrients) के आधार पर कुलथी की तुलना अन्‍य खाद्य अनाजों से की जाये तो यह कुछ इस प्रकार होगी । कुलथी के बीजों में प्रोटीन 25 प्रतिशत होता है ।  कुलथी में उपस्थित पोषक तत्व  प्रति 100 ग्राम 

प्रोटीन – 22 ग्राम                           
वसा – 0 ग्राम
खनिज – 3 ग्राम
फाइबर – 5 ग्राम                                           
कैल्शियम – 287 मिली ग्राम
आयरन – 7 मिली ग्राम
कार्बोहाइड्रेट – 57 ग्राम
फॉस्‍फोरस – 311 मिली ग्राम
  
भारत मै गहत के खेती 


भारत में गहत का उत्पादन लगभग सभी राज्यों में किया जाता है लेकिन कुछ प्रमुख राज्यों से भारत के कुल उत्पादन में 28 प्रतिशत कर्नाटक, 18 प्रतिशत तमिलनाडु, 10 प्रतिशत महाराष्ट्र, 10 प्रतिशत ओडिशा तथा 10 प्रतिशत आंध्र प्रदेश मै होता है। कुलथ दाल की पैदावार से जमीन का उपजाऊपन  भी ठीक होती है ।  इसको उगाने से मिट्टी की उर्वरक क्षमता बढती हैं । इसके पौधों का इस्तेमाल हरी खाद बनाने में भी किया जाता हैं ।कुल्थी के पौधे झाड़ीनुमा और बेल के रूप में दिखाई देते हैं. जिनकी लम्बाई उड़द, मुंग के पौधों की तरह डेढ़ से दो फिट तक पाई जाती है|मुख्यतः रूप से असिंचित दशा में उगाया जाता है और जहां तक उत्तराखण्ड में गहत उत्पादन है यह परम्परागत रूप से  दूरस्थ खेतो में उगाया जाता है क्योंकि गहत की फसल में सूखा सहन करने की क्षमता होती है, साथ ही नाइट्रोजन फिक्सेशन करने की भी क्षमता होती है। इसकी खेती के लिये 20 से 30 डिग्री सेल्शियस, जहाँ 200 से 700 मिलीमीटर वर्षा होती है, उपयुक्त पायी जाती है।


औषधीय फायदे 
 कुलथ  का इस्तेमाल औषधीयरूप में बहुत उपयोगी होता है। इसके खाने से कृमि, श्वास संम्बधी रोग, बुखार, कफ, हिचकी, कास और पथरी जैसी कई तरह की बीमारियों से छुटकारा मिलता है। कुलथ के दानो का रंग भूरा पीला दिखाई देता है|
इसमें फाइटिक एसिड तथा फिनोलिक एसिड की अच्छी मात्रा होने के कारण इसे सामान्य कफ, गले में इन्फेक्शन , बुखार तथा अस्थमा आदि में प्रयोग किया जाता है।इसमे बीटा एन्जाइम को रोकने की क्षमता होती है जो कि कार्बोहाईड्रेड के पाचन को कम कर शुगर को घटाने में मदद करता है तथा साथ ही शरीर में इन्सुलिन रेजिसटेंस को भी कम करता है।आयुर्वेदिक औषधि सिस्टोन में भी गहत को मुख्य भाग में लिया जाता है जो कि किडनी स्टोन के लिये प्रयोग की जाती है। इसके अलावा अन्य विभिन्न शोधों में भी इसके उपयोग को किडनी रोगो के रूप में उपयुक्त पाया गया है|
 

Sunday, August 9, 2020

राजमा की खेती

 राजमा की खेती पहाड़ी क्षेत्र में अधिक की जाती है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में राजमा की खेती को अहमियत दी जाती है।

राजमा में सोयाबीन से अधिक मात्रा में प्रोटीन होता है तथा यह प्रोटीन का सर्वाधिक संचायक स्रोत है।  इसिलए भारतीय इसे प्राथमिकता देते है ।

भारत मैं इसे प्राथमिकता देने का सर्वाधिक बड़ा कारण यह भी है कि राजमा में प्रोटीन के अलावा विटामिन, कार्बोहाइड्रेट की अच्छी मात्रा पाई जाती है।

राजमा को “किडनी बींस“ के नाम से भी जानते है। 

भारत के उत्तराखंड राज्य में राजमा की खेती को प्राथमिक रूप से करते है है। आज प्रत्येक किसान इस क्षेत्र में गेहूं एवं धान से ज्यादा वरीयता राजमा को दे रहा है तथा वहां इन सभी फसलों से ज्यादा उत्पादन ले रहा है। यह कम समय में अधिक मात्रा में मुनाफा देने वाला है। यह एक दलहनी फसल है। जो रबी एवं खरीफ दोनों ही मौसम में उगाई जाती है। राजमा में प्रोटीन की मात्रा 25% तक पाई जाती है ।उत्तराखंड के अलावा उत्तर प्रदेश राज्य में भी राजमा की खेती की जाती है। जैसा कि पहले बताया है कि यह रवि एवं खरीद दोनों की फसल है। अतः यह हर मौसम में प्राप्त की जा सकती है।

राजमा की खेती से होने वाले फायदे

  1. राजमा की सेवन से माइग्रेन की समस्या से निजात पाया जाता है, राजमा में उपस्थित कीलेट और मैग्नीशियम तत्व जो हमारी दिमागी क्षमता को बढ़ाते है। इससे दिमाग से जुड़े काफी रोगों से छुटकारा मिलता है।सिर दर्द जैसी समस्या भी खत्म हो जाती है।
  2. राजमा में फाइबर होता है जो घुलनशील अवस्था में पाया जाता है। यह हमारे शरीर में अधिक मात्रा में कार्बोहाइड्रेट की मात्रा को कम करता है । इस वजह से हमे दमा और मोटापा जैसी बीमारियों से छुटकारा मिलता है।
  3. राजमा के सेवन से ब्लड शुगर लेवल भी नियंत्रण में रहता है। ये हमारी नर्वस सिस्टम को भी नियंत्रित करता है।
  4. राजमा की खेती के लिए भारत सरकार ने भी कई अनुसंधान केंद्र तथा प्रशिक्षण केंद्र खोले हैं। जो अपने-अपने स्तर पर इसकी मात्रा और उत्पादन क्षमता को बढ़ाने के लिए कार्य कर रहे हैं। 


ऐसे करें राजमा की खेती

1. भूमि की तैयारी

  •  भूमि की तैयारी करने के लिए हमें खेत में नमी की आवश्यकता होती है। भूमि की जुताई करने से पहले 15 दिनों के पहले ही हमें अपनी भूमि में पानी की व्यवस्था करनी चाहिए।
  • 15 दिन के पश्चात हमें मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करनी चाहिए। मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करने के पश्चात हमारी मिट्टी एक बार पलट जाती है।
  • उसके पश्चात हमें दो से तीन बार जुताई कल्टीवेटर के माध्यम से करनी चाहिए जिससे मिट्टी में उपस्थित सभी आवश्यक तत्व आपस में मिल जाएं।
  • कल्टीवेटर से जुताई करने के पश्चात हमें पाटा की सहायता से अपनी मिट्टी को भुरभुराकर अपने खेत को समतल कर लेना चाहिए। 

2. जलवायु एवं भूमि

राजमा की खेती हेतु रबी एवं खरीफ दोनों प्रकार की फसलों के समय में लाभदायक फसल होती है। अतः इसके लिए शीतोष्ण एवं समशीतोष्ण दोनों प्रकार की जलवायु लाभकारी होती है। सामान्यतः राजमा की खेती के लिए 10 डिग्री सेंटीग्रेड से 30 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान सही माना गया है| अतः राजमा की खेती के लिए नमी एवं ऊष्मा दोनों की आवश्यकता होती है ।राजमा की खेती के लिए हल्की दोमट मिट्टी से लेकर भारी चिकनी मिट्टी दोनों फायदेमंद है। मिट्टी का पी.एच.मान्य सामान्यता 6.5 से 7.5 चाहिए। तथा इसमें अधिक लवणता की मात्रा हानिकारक होती है ।

3. बुवाई

राजमा की खेती में बुवाई से पहले बीज को उपचारित कर लेना चाहिए। बीज को उपचारित करने के लिए हमें फफूंदनासी थीरम जिसकी मात्रा 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज में मिलाकर बीजों का उपचार करके उन्हें धूप में रखना चाहिए।

इसके पश्चात ही हमें बीजों की बुवाई करना चाहिए। बीज की बुवाई करने से पहले हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हम राजमा की खेती लता के रूप में करना चाहते हैं या झाड़ी के रूप में करना चाहते हैं।

इसके पश्चात हमें बुवाई की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए। बीजों की बुवाई क्यारिया बनाकर करनी चाहिए। जिसमें क्यारियों से क्यारियों के बीच की दूरी 30 से 40 सेंटीमीटर होना चाहिए तथा पौधे से पौधे की दूरी लगभग 10 सेंटीमीटर होना चाहिए। बीज की बुवाई करने से पहले हमें गड्ढे की गहराई लगभग 8 से 10 सेंटीमीटर रखनी चाहिए जिसमें हम बीज बोते हैं ।

बीज बोने के लिए बीज की मात्रा 120 से 140 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से लेना चाहिए। देर से बुवाई करने से बचना चाहिए। ऐसा करने पर उपज में प्रभाव पड़ता है तथा इससे फसल के वानस्पतिक क्षेत्र में हानि होती है।देर करने पर उसकी फलियों की संख्या कम होती है तथा बीज का भार भी कम हो जाता है। अतः समय पर ही हमें बुवाई कर देना चाहिए।

राजमा की खेती में बीजों को हम समतल खेत में उठी हुई क्यारियों या, मेड़ों में कर सकते हैं। झाड़ियों के लिए क्यारियों से क्यारियों के बीच की दूरी लगभग 75 सेंटीमीटर तथा पौधे से पौधे की दूरी 25 से 30 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। इसके बीज को 5 सेंटीमीटर गहराई पर रोपित करना चाहिए।

4. उपयुक्त किस्मों का चुनाव।

हम आपसे कुछ विशिष्ट किस्मों के बारे में चर्चा करेंगे जो राजमा की खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है। जिसमें कम समय में अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त किया जाता है।

  • P.D.R.१४- यह राजमा की खेती के लिए सर्वोत्तम फसल की किस्म है। जो 110 से 120 दिन के अंतराल में पक कर तैयार हो जाती है। 
  • मालवीय 15- राजमा की किस्म 110 में पक कर तैयार हो जाती है। तथा 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से हमें उत्पादन प्रदान करती है।
  • B.l.६३- राजमा की यह किस्म लगभग 120 दिन मैं पक कर तैयार हो जाती है। तथा 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से उत्पादन प्रदान करती है।
  • R.s.j.१७८- राजमा की यह किस्म भी लगभग 110 से 120 दिन में पक कर तैयार हो जाती है ।तथा 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से उत्पादन प्रदान कराती है।
  • I.I.I.p.r. ९६- यह किस्म बहुत महत्वपूर्ण है। जो लगभग 130 दिनों में पक कर तैयार होती है। वहीं 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से उत्पादन प्रदान कराती है।

राजमा कि यह उन्नत और उपयुक्त किस्मे है।जो हमें बड़े पैमाने पर राजमा की उपयुक्त उत्पादन क्षमता प्रदान करती है। 

खाद व उर्वरक की मात्रा

इसकी खेती के लिए देसी खाद के रूप में हमें 15 से 20 टन सड़े गोबर की खाद का प्रयोग करना चाहिए। इसमें संपूर्ण मात्रा में एवं विशेष खनिजों की भरपूर मात्रा होती है जो हमारी फसल के लिए उपयुक्त होती है ।

राजमा की फसल शाकाहारी दलहनी फसल है परंतु यह वातावरण से नेत्र जन उस मात्रा में ग्रहण नहीं कर पाती जिस मात्रा में सभी दलहन फसल प्राप्त करती है। अतः इसके लिए हमें विशेष उर्वरक की आवश्यकता होती है। इसमें विशेष रूप से नाइट्रोजन की मात्रा का होना आवश्यक होता है।


सर्वप्रथम 120 किलोग्राम नाइट्रोजन 60 किलोग्राम फास्फोरस 30 किलोग्राम पोटाश की मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से हमें अपने खेतों में देनी चाहिए। तथा इसी के साथ 30 किलोग्राम सल्फर प्रति हेक्टेयर की दर से हमें हमारी खेत में देना चाहिए।

समय-समय पर खरपतवार का उपचार करते रहना चाहिए। जहां तक हो सके हाथों की सहायता से हमें खरपतवार नियंत्रित करना चाहिए। इसके लिए हम विशेष खरपतवार नासी का भी प्रयोग कर सकते हैं।

हमें हमारे खेतों में समय-समय पर निराई गुड़ाई की आवश्यकता होती है। गुड़ाई होते रहने से हमारी फसल की मिट्टी पलटती रहती है। जिससे उपयुक्त व आवश्यक रूप पर समय-समय पर उन्हें पोषक तत्वों की मात्रा मिलती रहती है तथा हमारी फसल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। निराई कराने से खरपतवार नासी का खर्चा बचता है तथा साथ ही इससे होने वाले हानिकारक प्रभाव से बचा जा सकता है।

पानी की व्यवस्था

राजमा की खेती के लिए जल निकास की व्यवस्था होना फसल पर सीधा प्रभाव डालती है क्योंकि यह दलहनी फसल है।

अतः पानी का इस पर विशेष प्रभाव पड़ता है। इसके लिए हमारे खेतों में नमी रहना अति आवश्यक है। नमी युक्त भूमि होने पर ही हम आवश्यक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं। नमी की कमी होने पर हमारी फसलों में भारी मात्रा में प्रभाव पड़ता है। तथा इससे फलियां झड़ने का डर होता है। जिससे अंकुरण क्षमता में और बीजों की उत्पादन क्षमता में भारी मात्रा में प्रभाव पड़ता है।

सर्वप्रथम जुताई के 15 दिन पहले ही हमें हमारे खेत में सिंचाई की व्यवस्था कर देनी चाहिए। 20 दिन पश्चात हमारे खेतों में पानी की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए। इसके पश्चात राजमा की खेती में चार से पांच बार पानी की व्यवस्था होना अति आवश्यक है।

सिंचाई हेतु नाली बना कर प्रयोग में ला सकते हैं। पानी की व्यवस्था हमारी संपूर्ण फसल को प्रभावित करती है। पानी की समुचित व्यवस्था होने से हम अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं। वहीं पानी की समुचित व्यवस्था ना होने से हमें भारी हानि भी उठानी पड़ सकती है।

बुवाई का समय

राजमा की खेती करने हेतु रवि और खरीफ दोनों प्रकार की फसलों की बुवाई की समय के अनुकूल ही होता है। रवि की फसल के समय बुवाई करने के लिए हमें जून के अंतिम पखवाड़े तक बीज रोपित कर देना चाहिए

खरीफ में अगर हम बुवाई करना चाहते हैं तो नवंबर-दिसंबर के बीच में अर्थात नवंबर के अंतिम पखवाड़े और दिसंबर के प्रथम पखवाड़े के बीच में हमें बुवाई कर देना चाहिए। इसके अलावा बसंत ऋतु में भी हम बुराई कर सकते हैं। मार्च के महीने में बोई जाने वाली फसलें कम समय में अधिक उत्पादन हमें प्रदान करती है।

कीटनाशक

राजमा की खेती में फलियां लगने के पश्चात इसमें कीट का प्रकोप सबसे ज्यादा देखा जाता है। जो इसकी फलियों से गुजरकर पर अंदर तक पहुंच जाता है। तथा यह संपूर्ण फल्ली में एक सुरंग बना लेता है।

जिसके कारण हमारी फसल का बहुत बड़ा हिस्सा प्रभावित होता है। फली कमजोर होकर गिर जाती है।बीजों मैं प्रभाव पड़ता है।फलियों के अंदर जाने पर फलिया कमजोर होने की वजह से बहुत प्रभाव पड़ जाता है इससे से बचने के लिए बाजार में उपलब्ध कीटनासिक की सहायता से हम इसका उपचार कर सकते हैं।

महत्वपूर्ण सावधानियां

राजमा की खेती हेतु महत्वपूर्ण सावधानियां रखने की आवश्यकता होती है, जिनमें कुछ निम्नलिखित हैं।

  • राजमा राजमा की खेती के लिए उचित तापमान की आवश्यकता होती है।
  • पानी के नियोजन और उसकी बहाव एवं जल निकासी की आवश्यकता होती है।
  • सही किस्म का चुनाव आवश्यक होता है।
  • जिस समय पर हम फसल बोने जा रहे हैं समय निश्चित हो इसका ध्यान रखना आवश्यक है।
  • जिस फसल में हम राजमा की खेती कर रहे हैं। निश्चित समय पर बुवाई आवश्यक होती है।
  • समय समय पर निराई और गुड़ाई की आवश्यकता होती है।
  • यह दलहनी फसल है परंतु इसकी गांठ में राइजोबियम जीवाणु नाइट्रोजन ग्रहण करने में अक्षम होता है अतः उर्वरक की मात्रा देना आवश्यक होता है।

कटाई

  • राजमा की खेती के अंत में जब फसल पककर तैयार हो जाती है। तो उसकी हरी पत्तियां भूरे रंग की हो जाती है। तथा उन फलियों में बीज उठकर तैयार हो जाते हैं।
  • यह बीज दिखने में लाल या कत्थई कलर के होते हैं तथा किडनी के जैसे दिखाई प्रतीत होते हैं अतः इन्हें किडनी बींस के नाम से भी जाना जाता है।
  • इन्हें हम काटकर सर्वप्रथम धूप में रखते हैं। दो-तीन दिन धूप लगने के पश्चात इन फलियों में से दाना अलग करना अनुकूल होता है।
  • हरी फलियो का प्रयोग हम सब्जी के रूप में कर सकते हैं ।तथा राजमा का प्रयोग भी बहुत ही स्वादिष्ट व्यंजन पकाने में होता है।
  • बाजार में राजमा बहुत अच्छे दामों पर विक्रय होता है। जिससे हमारे लागत मूल्य में वृद्धि होती है। 


गुड़हल की मनमर्जियाँ

सबसे पहले मेरा नमस्कार आप सभी को जो पेड़-पौधों से बेशुमार प्यार करते हैं

यह पोस्ट लिख रहा हूँ बहुत से लोगों के बार-बार आते प्रश्न को देखकर कि उनके गुड़हल में बड्स तो आते हैं लेकिन वे फूलने से पहले गिर जाते हैं। शायद ही ऐसा कोई हो जिसे ये परेशानी न झेलनी पड़ी हो। मैं कोई एक्सपर्ट तो नहीं हूँ लेकिन गुडहल के फूलो से मुझे बहुत प्यार है। मुझे भी ये परेशानी आई तो मैंने कई लोगों से बात की और इंटरनेट पर बहुत पढ़ा, जो समझा-सीखा उसे आपके साथ साझा कर रहा हूँ। 

जो गुड़हल नर्सरी में फूलों और कलियों से भरा दिखता हो वह घर तक आते ही आपको निराश करता है। उसकी कलियां गिरने लगती हैं और ऐसा 1 से 2 दिन के अंदर शुरू हो सकता है। 

इसका एक कारण  यह भी है कि गुडहल बहुत मूडी किस्म का पौधा है। उसे नए माहौल में ढलने में थोड़ा वक़्त लगता है। इसलिए जो कलियां पहले से थीं वे तुरंत गिरने लगती हैं। और ऐसा अधिकतर उस मौसम में होता है जब एक मौसम ढल रहा हो और दूसरा दस्तक दे रहा हो। लेकिन घबराने की ज़रूरत नहीं कुछ समय बाद पौधा ख़ुद को एडजस्ट कर लेता है। उसे थोड़ा समय दें। सितंबर और अक्टूबर में गुड़हल अपनी कलियां गिरने नहीं देगा।

दूसरा कारण होता है कुछ कीड़ों का असर। अगर पीले होकर कलियाँ गिर रहीं हों तो उन्हें खोलकर देखें, हो सकता है कोई लार्वा हो। नहीं भी हो सकता। अगर है तो आपको किसी अच्छे कीटनाशक का छिड़काव करने की ज़रूरत है। 

तीसरी वजह होती है न्यूट्रिशन की कमी जिसे आप बोन मील, DAP या जैसे भी न्यूट्रिशन देना चाहें देकर, पूरा कर सकते हैं। बहुत से लोग केले और प्याज के छिलके का बना फ़र्टिलाइज़र देते है , हो सकता है यह काम करता हो लेकिन मुझे इसका ख़ास फ़ायदा नहीं दिखा।

चौथी वजह पानी से जुड़ी हो सकती है। ये ट्रॉपिकल प्लांट है तो इसे नमी बहुत पसंद है लेकिन नमी इतनी भी न हो कि जड़ें सड़ने लगें। ऊपर के लेयर की मिट्टी अगर हल्की सूखी सी दिखने लगे तो समझिए पानी चाहिए। इसका एक तरीका हो सकता है जो मैंने आजमाया और काम कर रहा है। ड्रेनेज यानी पानी निकलने का इंतेज़ाम अच्छा रखिये, और दोनों वक्त एक मात्रा फिक्स कर लीजिए पानी की, उतना ही दीजिये।

पांचवीं वजह हो सकती है जड़ों को फैलने की पर्याप्त जगह नहीं मिलना। तो अपना गमला बड़ा करके देखें, काम करेगा।

और सबसे ज़रूरी लेकिन अलहदा बात ज़रूरत से ज़्यादा केअर भी पौधों में कभी मौसम से लड़ने की ताकत आने नहीं देता। आपने अपने स्तर पर जो करना था किया उसके बाद उन्हें ख़ुद करने दें। वे लड़खड़ाते हुए ही सम्भलना सीखेंगे और जब सीख लेंगे तो आपके लिए सिर्फ और सिर्फ मुस्कुराने के मौके देंगे। उनसे ज़्यादा आस न लगाएं, और उस आस में ज़ल्दबाज़ी तो कतई नहीं। वे अपने स्वभावानुसार खिलेंगे, फलेंगे-फूलेंगे।


Wednesday, July 29, 2020

भारत मैं संवा की खेती।

भारत मे साँवा की खेती 

जहाँ सिंचाई की उचित व्यवस्था नही है । ऐसे क्षेत्रों में बोए जाने वाले मोटे अनाजों में साँवा प्रमुख स्थान रखता है। यह भारतीयों की पुरातन फसल है। यह  अधिकतर  अन्सिचित क्षेत्र में बोयी जाने वाली सूखा प्रतिरोधी फसल है। इसमें पानी की आवश्यकता अन्य फसलों से कम होती है। हल्की नम व ऊष्ण जलवायु इसके लिए अच्छी रहती है।

प्रमुखतया साँवा का उपयोग चावल की तरह किया जाता है। उत्तर भारत में साँवा की “खीर” बड़े चाव से खायी जाती है।दुधारू पशुओं के लिए इसका बहुत उपयोग है। इसका हरा चारा पशुओं को बहुत पसन्द है। इसमें चावल की तुलना में अधिक पोषण तत्व पाये जाते हैं और इसमें पायी जाने वाली प्रोटीन की पाचन योग्यता सबसे अधिक (40 प्रतिशत तक) है।
पोषक तत्व की मात्रा (प्रत्येक 100 ग्राम में)
प्रोटीन (ग्राम)  काबोहाइड्रेट (ग्राम)  वसा (ग्राम)  कूड फाइवर (ग्राम)  लौह तत्व  कैल्शियम (मिग्रा.)  फास्फोरस (मिग्रा.)
चावल  6.8 , 78.2 , 0.5 , 0.2  ,0.6  ,10.0  ,60.0
साँवा  11.6 , 74.3 , 5.8  ,14.7 , 4.7 , 14.0  ,121.0

फसल के लिए आवश्यक मिट्टी
सामान्यता यह फसल कम उपजाऊ वाली मिट्टी में बोयी जाती है।  हालांकि इसे नदी के किनारे की निचली भूमि में भी उगाया जा सकता है। लेकिन इसके लिए बलुई दोमट व दोमट मिट्टी जिसमें पर्याप्त मात्रा में पोषण तत्व हो, सर्वाधिक उपयुक्त है।

खेती की तैयारी
मानसून के प्रारम्भ होने से पूर्व खेत की जुताई आवश्यक है। मानसून के प्रारम्भ होने के साथ ही मिट्टी पलटने वाले हल से पहली जुताई तथा दो – तीन जुताईयां हल से करके खेत को भली – भॉति तैयार कर लेना चाहिए।

जुताई का उचित समय
साँवा की बुवाई की सही समय 15 जून से 15 जुलाई  के बीच तक है। मानसून के प्रारम्भ होने के साथ ही इसकी बुवाई कर देनी चाहिए। इसके बुवाई छिटकावाँ विधि से या कूड़ों में 3-4 सेमी. की गहराई में की जाती है। कहीं कहीं इसकी रोपाई भी करते हैं। लेकिन पंक्ति से पंक्ति की दूरी 25 सेमी. रखते है।कूंड व लाइन में बुवाई लाभप्रद होती है।जहाँ पानी के भराव की संभावना हो ऐसे स्थान पर मानसून के प्रारम्भ होते ही छिटकवाँ विधि से बुवाई कर देना चाहिए तथा बाढ़ आने के सम्भवना से पहले फसल ले लेना अच्छा होता है।

बीज की मात्रा
प्रति हेक्टेयर 8 से 10 किग्रा. गुणवत्तायुक्त बीज पर्याप्त होता है।

प्रमुख प्रजातियां
प्रजाति  पकने की अवधि (दिनों में)  पौधे की लम्बाई (सेमी.)  बाली की लम्बाई (सेमी.)  पौधों का रंग  उपज (कु.⁄हे.)  क्षेत्र
टी.-46  -  -  -  -  10-12  उ.प्र. में विशेष रूप से प्रचलित
आई.पी.-149  80-90  145  26-26-  हल्का भूरा रंग  12-13  
यू.पी.टी-18  74-80  126-130  हल्का भूरा रंग  12  -
1  2  3  4  5  6  7
आई.पी.एम.-97  83-8  140-150  12-14  हल्का भूरा रंग  10  
आई.पी.एम.-100  65-67  130-140  -  हल्का भूरा रंग  10-12  
आई.पी.एम.-148  77-86  150-162  -  हल्का भूरा रंग  11-12  
आई.पी.एम.-151  80-88  135-162  14-17  हल्का भूरा रंग  12-13  
मदिरा-21, मदिरा -29 व चन्दन अन्य नई उन्नतशील प्रजाति है। प्रदेश में शुद्ध अथवा कपास, अरहर व अन्य अल्प अवधि के दलहनी फसलों के साथ मिश्रण के रूप में बोयी जाती है।

खाद एवं उर्वरक का प्रयोग 
जैविक खाद का उपयोग हमेशा लाभकारी होता है क्योंकि मिट्टी में आवश्यक पोषक तत्वों को प्रदान करने के साथ-साथ जल धारण क्षमता को भी बढ़ाता है। 5 से 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से कम्पोस्ट खाद खेत में मानसून के बाद पहली जुताई के समय मिलाना लाभकारी होता है।
 नत्रजन, फास्फोरस व पोटाश की मात्रा 40:20:20: किग्रा. प्रति हेक्टेयर के अनुपात में प्रयोग करने से उत्पादन बेहतर प्राप्त होता है। सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होने की स्थिति में नत्रजन की आधी मात्रा टापड्रेसिंग के रूप में बुवाई के 25-30 दिन बाद फसल में छिड़काव करना चाहिए।

पानी का प्रबन्धन
सामन्य तथा साँवा की खेती में सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती। परन्तु जब वर्षा लम्बे समय तक रूक गयी हो, तो पुष्प आने की स्थिति में एक सिंचाई आवश्यक हो जाती है। जल भराव की स्थिति में पानी के निकासी की व्यवस्था अवश्य करनी चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण
बुवाई के 30 से 35 दिन तक खेत खरपतवार रहित होना चाहिए। निराई-गुड़ाई द्वारा खरपतवार नियंत्रण के साथ ही पौधों की जड़ो में आक्सीजन का संचार होता है जिससे वह दूर तक फैलकर भोज्य पदार्थ एकत्र कर पौधों की देती हैं। सामान्यतया दो निराई-गुड़ाई 15-15 दिवस के अन्तराल पर पर्याप्त है। पंक्तियों में बाये गये पौधों की निराई-गुड़ाई हैण्ड हो अथवा हवील हो से किया जा सकता है।

 
फसल मैं होने वाली बीमारियां
1. तुलासिता
यह एक कवकजनिक रोग है। इसके आक्रमण के प्रारम्भ में पत्तियों पर पीली धारियॉ उभरती है, जो बाद में सफेद हो जाति है और पत्तियॉ सूख जाती हैं। अधिक भयानक प्रकोप होने पर बालियॉ भूसीदार हो जाती हैं।
ऐसी स्थिति में यथासंभव रोग ग्रसित पौधे को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए तथा ध्यान रखना चाहिए कि बीजोपचार के उपरान्त ही बोवाई की जाय जिससे कवक जनित रोगों से फसल सुरक्षा की जा सके।

रोकथाम की विधि
इसके रोकथाम के लिए मैंकोजेब 75 डब्लू.पी. को 2 किग्रा. प्रति हे. की दर से खड़ी फसल में छिड़काव करना चाहिए।

2. कण्डुवा
यह एक कवकजनित रोग है जिसमें पूरी बाल एक काले चूर्ण जैसे पदार्थ से ढ़क जाती है। इसके बीजाणु एक सफेद झिल्ली से ढके रहते हैं। रोगग्रस्त पौधा अन्य पौधों से ऊॅचा होता है।
रोकथाम के उपाय
    बीजोपचार ही इसकी रोकथाम है। बुवाई से पूर्व थिरम 75 प्रतिशत डी.सी.⁄डब्लू.पी. अथवा कार्बेण्डाजिम 50 प्रतिशत डब्लू.पी. 2.5 ग्राम प्रति किग्रा. बीज की दर से बीज को उपचारित करने के उपरान्त बोने चाहिए।
    रोग ग्रसित पुष्प गुच्छों का सावधानी पूर्वक तोड़कर नष्ट कर देना चाहिए।

3. रतुआ / गेरूई
यह फफूँदी जनित रोग है। पत्तियों पर लाइन में काले धब्बे दिखाई पड़ते हैं। इसके कारण उपज अत्यधिक प्रभावित होता है।
रोकथाम के उपाय
रोग के रोकथाम हेतु मैंकोजेब 75 डब्लू०पी० अथवा जिनेब 75 प्रतिशत डब्लू०पी० के 2 किग्रा० प्रति हे० की दर से खड़ी फसल पर छिड़काव करना चाहिए।
कीट
दीमक व तना बेधक प्रमुख कीट है जो इसको प्रभावित करते हैं।
दीमक
दीमक की कीट के रोकथाम के हेतु निम्न उपाय करना चाहिए
    खेत में कच्चे गोबर का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
    बुवाई के पूर्व दीमक के नियंत्रण हेतु क्लोरोपाइरीफास 20 प्रतिशत ई०सी० की 3 मिली० प्रति किग्रा० की दर से बीज को शोधित करना चाहिए।
    ब्यूबेरिया बैसियाना 1.15 प्रतिशत बायोपेस्टीसाइड (जैव कीटनाशी) की 2.5 किग्रा० प्रति हे० 60-75 किग्रा० गोबर की खाद में मिलाकर हल्के पानी का छींटा देकर 8-10 दिन तक छाया में रखने के उपरान्त बुवाई के पूर्व आखिरी जुताई पर भूमि में मिला देने से दीमक सहित अन्य भूमिजनित कीटों का नियंत्रण हो जाता है।
    खड़ी फसल में क्लोरोपाइरीफास 20 प्रतिशत ई०सी० 2.5 प्रति हे० की दर से सिंचाई के पानी के साथ प्रयोग करना चाहिए।
तनाछेदक के प्रकोप पर उपचार
    फोरेट 10 प्रतिशत सी०जी० 10 किग्रा० प्रति०हे० की दर से करना चाहिए।
    कार्बोफ्यूरान 3 प्रतिशत ग्रेन्यूल 20 किग्रा० प्रति हे० की दर से प्रयोग करना चाहिए अथवा क्यूनालफास 25 ई०सी० 2 लीटर दर से छिड़काव करना चाहिए।
कटाई व मड़ाई
पकने की स्थिति में कटाई पौधे के जड़ से हॅसिये की सहायता से की जानी चाहिए। इसका गठ्ठर बनाकर खेतों में एक सप्ताह के लिए सूखने हेतु रखने के उपरान्त मड़ाई की जानी चाहिए।
पैदावार
दाना-12-15 कुन्तल/हेक्टेयर
भूसा-20-25 कुन्तल/हेक्टेयर

भण्डारण
भण्डारण के पूर्व बीज को भली प्रकार से सुखा लेना चाहिए, ताकि उनमें नमी की मात्रा 10-12 प्रतिशत तक घट जाय। सुखाने के बाद बीज को बोरियों में भरकर रखना चाहिए। भंडारण वाली जगह पर नमी, पानी और चूहों के बचाव रखना चाहिए।

Tuesday, June 9, 2020

करौंदा किसान की लिए खजाने की चाभी।

करौंदा की खेती एक पंथ दो काज 
मुनाफे के साथ ही साथ वाढ लगाने का खर्चा भी बचाये 
करौंदे की फसल किसानों के लिए बहुत फायदेमंद है। ये फसल किसानों को मुनाफा देने के साथ-साथ उनकी फसल की सुरक्षा भी करती है। करौंदा झाड़ीनुमा कांटेदार वृक्ष होने की वजह से नीलगाय और आजकल आवारा घूमती गायों को फसल का नुकसान करने के लिए रोकता हैं।
 यह वृक्ष भारत में राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, उत्तरप्रदेश और हिमालय के कई क्षेत्रों में पाया जाता है।
एक पौधे से दूसरे पौधे के बीच एक से डेढ़ मीटर की दूरी रखते हैं और इसके बीच में बेल का भी पौधा लगा सकते है। करौंदा का पेड़ ज्यादा लम्बा नहीं होता है इसलिए बेल और करौंदा एक साथ आसानी से हो जाता है।
करौंदे की फसल में कम लागत और मुनाफा भरपूर 
बहुत कम देखरेख कम खाद पानी की जरूरत हैं करौंदा को , फसल में जो खाद पानी डालते है वो करौंदा के पौधों तक आसानी से पहुंच जाता है। इसका पौधा लगने के डेढ़ साल के बाद फल लगने शुरू हो जाते हैं। अप्रैल के महीने में फूल मई-जून में फल लग जाते हैं। जुलाई का महीना आते-आते फल पूरी तरह से पक कर जुलाई अंतिम सप्ताह भी हो जाते हैं। करौंदे के पौधों की हर साल छटाई होती रहे तो उसके फल तोड़ने में कोई परेशानी नहीं होती है।

फसल उत्पादन 
एक करौंदे के पौधे में कम से कम 10 किलो करौंदा आराम से निकल आता है। आज के समय करौंदा का बाजार भाव 30 से 50 रुपए चल रहा हैं !  
करौंदे के पेड़ पहाड़ी मैदान गर्म क्षेत्रों में ज्यादा होते हैं कांटे भी होते हैं। करौंदे का पौधा एक झाड़ की तरह होता है। इसकी ऊंचाई 6 से 7 फीट तक होती है। पत्तों के पास कांटे होते है जो मजबूत होते है। इसके फूलों की गन्ध मन को मोहने वाली होती है। इसके फल गोल, छोटे और हरे रंग के होते है। करौंदा के कच्चे फल सफेद व लालिमा सहित अण्डाकार दूसरे बैंगनी व लाल रंग के होते हैं देखने में सुन्दर तथा कच्चे फल को काटने पर दूध निकलता है। पक जाने पर फल का रंग काला हो जाता है,!
करौंदे का अचार बहुत अच्छा होता है। इसकी लकड़ी जलाने के काम आती है। एक विलायती करौंदा भी होता है, जिसे पिंक करौंदा कहते हैं वो भारतीय बगीचों में पाया जाता है। इसका फल थोड़ा बड़ा होता है और देखने में सुन्दर भी। इस पर कुछ सुर्खी-सी होती है। इसी को आचार और चटनी और मुरब्बा के रूप में चेरी बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता हैं !
करौंदा 


करौंदा से होने वाले स्वास्थय लाभ 
करौंदा भूख बढ़ाता है और पित्त को शान्त करता है। प्यास को रोकता है, दस्तों को बन्द करता है करोंदा के कई गुणों में एक गुण यह है कि करोंदा हृदय के लिए फायदेमंद होता है। करोंदा में फ्लैनोनोइड एंटीऑक्सीडेंट गुण होते हैं जो कि हमारी हृदय संबंधी बीमारियों से हिफाजत करता है।करोंदे में एंटीऑक्सीडेंट और फाइटोकेमिकल्स गुण होते हैं, जो हमारी रोग-प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में मदद करते हैं। इसमें करोंदे का जूस फायदेमंद साबित हो सकता है।एक अध्ययन के अनुसार करोंदे में मौजूद पिग्मेंट पेट में मौजूद बैक्टीरिया से लड़ता हैं। यह आंतों की कोशिकाओं को ठीक करने में सहायक होता हैं, जिससे पेट के अल्सर से बचाव होता है।करोंदा मूत्र संक्रमण को रोकने में भी फायदेमंद माना जाता है। करोंदे में फ्लेवोनॉयड होता है, जो बैक्टीरिया को यूरिनरी टै्रक्ट में पैदा होने से रोकने में सहायक होता है।करोंदा हड्डियों को भी मजबूती देता है। इसकी वजह है करोंदे में प्राकृतिक रूप से कैल्शियम अच्छी मात्रा में पाया जाता है। इससे ऑस्टियोपोरोसिस होने का खतरा कम होता है।करोंदा में प्रोंथोसाइनिडिन की अच्छी मात्रा होती है, जो कैंसर कोशिकाओं के विकास को रोकता है। करोंदा में एंटी-कैंसर जन्य घटक होते हैं जो कैंसर की कोशिकाओं को बढऩे से रोकते हैं।करोंदा में उपस्थित फाइटोन्यूट्रिएंट्स और एंटीऑक्सीडेंट गुण बढ़ती उम्र से संबंधित परेशानियां जैसे कि याद्दाश्त में कमी और एकाग्रता की कमी को दूर करने में सहायक होते हैं।

सौंदर्यवर्धक 
कैल्शियम की अच्छी मात्रा होने के कारण करोंदा दांतों के लिए फायदेमंद होता है। करोंदा में प्रोथेन्थोसाइडिन होता है जो मुंह को स्वस्थ बनाए रखने में सहायक साबित होता है।करोंदे का जूस शरीर में जमा फैट को हटाने का काम करता है, इससे आसानी से बढ़ा हुआ वजन कम किया जा सकता है। इसमें काफी मात्रा में फाइबर होता है, जिससे लंबे समय तक भूख नहीं लगती।करोंदा खाने से हमारी त्वचा में भी निखार आता है। इसमें पानी, विटामिन-सी और एंटीऑक्सीडेंट गुणों की भरमार होती है, जो हमारी त्वचा को निखारने में कारगर साबित होते हैं।करोंदे से बाल भी बढ़ते हैं। करोंदे में विटामिन-सी और विटामिन-ए होता है, जो बालों को बढऩे में मदद करते हैं। नियमित रूप से करोंदे का जूस पीने से बालों की ग्रोथ बढ़ती।करोंदा में एंटीसेप्टिक गुण होते हैं जो त्वचा पर मुंहासे और फुंसियों को रोकने में सहायक होते हैं। इसमें एंटीऑक्सीडेंट गुण पर्याप्त मात्रा में होते हैं जो मुंहासों और फुंसियों को कम करते हैं