Wednesday, July 29, 2020

भारत मैं संवा की खेती।

भारत मे साँवा की खेती 

जहाँ सिंचाई की उचित व्यवस्था नही है । ऐसे क्षेत्रों में बोए जाने वाले मोटे अनाजों में साँवा प्रमुख स्थान रखता है। यह भारतीयों की पुरातन फसल है। यह  अधिकतर  अन्सिचित क्षेत्र में बोयी जाने वाली सूखा प्रतिरोधी फसल है। इसमें पानी की आवश्यकता अन्य फसलों से कम होती है। हल्की नम व ऊष्ण जलवायु इसके लिए अच्छी रहती है।

प्रमुखतया साँवा का उपयोग चावल की तरह किया जाता है। उत्तर भारत में साँवा की “खीर” बड़े चाव से खायी जाती है।दुधारू पशुओं के लिए इसका बहुत उपयोग है। इसका हरा चारा पशुओं को बहुत पसन्द है। इसमें चावल की तुलना में अधिक पोषण तत्व पाये जाते हैं और इसमें पायी जाने वाली प्रोटीन की पाचन योग्यता सबसे अधिक (40 प्रतिशत तक) है।
पोषक तत्व की मात्रा (प्रत्येक 100 ग्राम में)
प्रोटीन (ग्राम)  काबोहाइड्रेट (ग्राम)  वसा (ग्राम)  कूड फाइवर (ग्राम)  लौह तत्व  कैल्शियम (मिग्रा.)  फास्फोरस (मिग्रा.)
चावल  6.8 , 78.2 , 0.5 , 0.2  ,0.6  ,10.0  ,60.0
साँवा  11.6 , 74.3 , 5.8  ,14.7 , 4.7 , 14.0  ,121.0

फसल के लिए आवश्यक मिट्टी
सामान्यता यह फसल कम उपजाऊ वाली मिट्टी में बोयी जाती है।  हालांकि इसे नदी के किनारे की निचली भूमि में भी उगाया जा सकता है। लेकिन इसके लिए बलुई दोमट व दोमट मिट्टी जिसमें पर्याप्त मात्रा में पोषण तत्व हो, सर्वाधिक उपयुक्त है।

खेती की तैयारी
मानसून के प्रारम्भ होने से पूर्व खेत की जुताई आवश्यक है। मानसून के प्रारम्भ होने के साथ ही मिट्टी पलटने वाले हल से पहली जुताई तथा दो – तीन जुताईयां हल से करके खेत को भली – भॉति तैयार कर लेना चाहिए।

जुताई का उचित समय
साँवा की बुवाई की सही समय 15 जून से 15 जुलाई  के बीच तक है। मानसून के प्रारम्भ होने के साथ ही इसकी बुवाई कर देनी चाहिए। इसके बुवाई छिटकावाँ विधि से या कूड़ों में 3-4 सेमी. की गहराई में की जाती है। कहीं कहीं इसकी रोपाई भी करते हैं। लेकिन पंक्ति से पंक्ति की दूरी 25 सेमी. रखते है।कूंड व लाइन में बुवाई लाभप्रद होती है।जहाँ पानी के भराव की संभावना हो ऐसे स्थान पर मानसून के प्रारम्भ होते ही छिटकवाँ विधि से बुवाई कर देना चाहिए तथा बाढ़ आने के सम्भवना से पहले फसल ले लेना अच्छा होता है।

बीज की मात्रा
प्रति हेक्टेयर 8 से 10 किग्रा. गुणवत्तायुक्त बीज पर्याप्त होता है।

प्रमुख प्रजातियां
प्रजाति  पकने की अवधि (दिनों में)  पौधे की लम्बाई (सेमी.)  बाली की लम्बाई (सेमी.)  पौधों का रंग  उपज (कु.⁄हे.)  क्षेत्र
टी.-46  -  -  -  -  10-12  उ.प्र. में विशेष रूप से प्रचलित
आई.पी.-149  80-90  145  26-26-  हल्का भूरा रंग  12-13  
यू.पी.टी-18  74-80  126-130  हल्का भूरा रंग  12  -
1  2  3  4  5  6  7
आई.पी.एम.-97  83-8  140-150  12-14  हल्का भूरा रंग  10  
आई.पी.एम.-100  65-67  130-140  -  हल्का भूरा रंग  10-12  
आई.पी.एम.-148  77-86  150-162  -  हल्का भूरा रंग  11-12  
आई.पी.एम.-151  80-88  135-162  14-17  हल्का भूरा रंग  12-13  
मदिरा-21, मदिरा -29 व चन्दन अन्य नई उन्नतशील प्रजाति है। प्रदेश में शुद्ध अथवा कपास, अरहर व अन्य अल्प अवधि के दलहनी फसलों के साथ मिश्रण के रूप में बोयी जाती है।

खाद एवं उर्वरक का प्रयोग 
जैविक खाद का उपयोग हमेशा लाभकारी होता है क्योंकि मिट्टी में आवश्यक पोषक तत्वों को प्रदान करने के साथ-साथ जल धारण क्षमता को भी बढ़ाता है। 5 से 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से कम्पोस्ट खाद खेत में मानसून के बाद पहली जुताई के समय मिलाना लाभकारी होता है।
 नत्रजन, फास्फोरस व पोटाश की मात्रा 40:20:20: किग्रा. प्रति हेक्टेयर के अनुपात में प्रयोग करने से उत्पादन बेहतर प्राप्त होता है। सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होने की स्थिति में नत्रजन की आधी मात्रा टापड्रेसिंग के रूप में बुवाई के 25-30 दिन बाद फसल में छिड़काव करना चाहिए।

पानी का प्रबन्धन
सामन्य तथा साँवा की खेती में सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती। परन्तु जब वर्षा लम्बे समय तक रूक गयी हो, तो पुष्प आने की स्थिति में एक सिंचाई आवश्यक हो जाती है। जल भराव की स्थिति में पानी के निकासी की व्यवस्था अवश्य करनी चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण
बुवाई के 30 से 35 दिन तक खेत खरपतवार रहित होना चाहिए। निराई-गुड़ाई द्वारा खरपतवार नियंत्रण के साथ ही पौधों की जड़ो में आक्सीजन का संचार होता है जिससे वह दूर तक फैलकर भोज्य पदार्थ एकत्र कर पौधों की देती हैं। सामान्यतया दो निराई-गुड़ाई 15-15 दिवस के अन्तराल पर पर्याप्त है। पंक्तियों में बाये गये पौधों की निराई-गुड़ाई हैण्ड हो अथवा हवील हो से किया जा सकता है।

 
फसल मैं होने वाली बीमारियां
1. तुलासिता
यह एक कवकजनिक रोग है। इसके आक्रमण के प्रारम्भ में पत्तियों पर पीली धारियॉ उभरती है, जो बाद में सफेद हो जाति है और पत्तियॉ सूख जाती हैं। अधिक भयानक प्रकोप होने पर बालियॉ भूसीदार हो जाती हैं।
ऐसी स्थिति में यथासंभव रोग ग्रसित पौधे को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए तथा ध्यान रखना चाहिए कि बीजोपचार के उपरान्त ही बोवाई की जाय जिससे कवक जनित रोगों से फसल सुरक्षा की जा सके।

रोकथाम की विधि
इसके रोकथाम के लिए मैंकोजेब 75 डब्लू.पी. को 2 किग्रा. प्रति हे. की दर से खड़ी फसल में छिड़काव करना चाहिए।

2. कण्डुवा
यह एक कवकजनित रोग है जिसमें पूरी बाल एक काले चूर्ण जैसे पदार्थ से ढ़क जाती है। इसके बीजाणु एक सफेद झिल्ली से ढके रहते हैं। रोगग्रस्त पौधा अन्य पौधों से ऊॅचा होता है।
रोकथाम के उपाय
    बीजोपचार ही इसकी रोकथाम है। बुवाई से पूर्व थिरम 75 प्रतिशत डी.सी.⁄डब्लू.पी. अथवा कार्बेण्डाजिम 50 प्रतिशत डब्लू.पी. 2.5 ग्राम प्रति किग्रा. बीज की दर से बीज को उपचारित करने के उपरान्त बोने चाहिए।
    रोग ग्रसित पुष्प गुच्छों का सावधानी पूर्वक तोड़कर नष्ट कर देना चाहिए।

3. रतुआ / गेरूई
यह फफूँदी जनित रोग है। पत्तियों पर लाइन में काले धब्बे दिखाई पड़ते हैं। इसके कारण उपज अत्यधिक प्रभावित होता है।
रोकथाम के उपाय
रोग के रोकथाम हेतु मैंकोजेब 75 डब्लू०पी० अथवा जिनेब 75 प्रतिशत डब्लू०पी० के 2 किग्रा० प्रति हे० की दर से खड़ी फसल पर छिड़काव करना चाहिए।
कीट
दीमक व तना बेधक प्रमुख कीट है जो इसको प्रभावित करते हैं।
दीमक
दीमक की कीट के रोकथाम के हेतु निम्न उपाय करना चाहिए
    खेत में कच्चे गोबर का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
    बुवाई के पूर्व दीमक के नियंत्रण हेतु क्लोरोपाइरीफास 20 प्रतिशत ई०सी० की 3 मिली० प्रति किग्रा० की दर से बीज को शोधित करना चाहिए।
    ब्यूबेरिया बैसियाना 1.15 प्रतिशत बायोपेस्टीसाइड (जैव कीटनाशी) की 2.5 किग्रा० प्रति हे० 60-75 किग्रा० गोबर की खाद में मिलाकर हल्के पानी का छींटा देकर 8-10 दिन तक छाया में रखने के उपरान्त बुवाई के पूर्व आखिरी जुताई पर भूमि में मिला देने से दीमक सहित अन्य भूमिजनित कीटों का नियंत्रण हो जाता है।
    खड़ी फसल में क्लोरोपाइरीफास 20 प्रतिशत ई०सी० 2.5 प्रति हे० की दर से सिंचाई के पानी के साथ प्रयोग करना चाहिए।
तनाछेदक के प्रकोप पर उपचार
    फोरेट 10 प्रतिशत सी०जी० 10 किग्रा० प्रति०हे० की दर से करना चाहिए।
    कार्बोफ्यूरान 3 प्रतिशत ग्रेन्यूल 20 किग्रा० प्रति हे० की दर से प्रयोग करना चाहिए अथवा क्यूनालफास 25 ई०सी० 2 लीटर दर से छिड़काव करना चाहिए।
कटाई व मड़ाई
पकने की स्थिति में कटाई पौधे के जड़ से हॅसिये की सहायता से की जानी चाहिए। इसका गठ्ठर बनाकर खेतों में एक सप्ताह के लिए सूखने हेतु रखने के उपरान्त मड़ाई की जानी चाहिए।
पैदावार
दाना-12-15 कुन्तल/हेक्टेयर
भूसा-20-25 कुन्तल/हेक्टेयर

भण्डारण
भण्डारण के पूर्व बीज को भली प्रकार से सुखा लेना चाहिए, ताकि उनमें नमी की मात्रा 10-12 प्रतिशत तक घट जाय। सुखाने के बाद बीज को बोरियों में भरकर रखना चाहिए। भंडारण वाली जगह पर नमी, पानी और चूहों के बचाव रखना चाहिए।

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