Sunday, August 9, 2020

राजमा की खेती

 राजमा की खेती पहाड़ी क्षेत्र में अधिक की जाती है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में राजमा की खेती को अहमियत दी जाती है।

राजमा में सोयाबीन से अधिक मात्रा में प्रोटीन होता है तथा यह प्रोटीन का सर्वाधिक संचायक स्रोत है।  इसिलए भारतीय इसे प्राथमिकता देते है ।

भारत मैं इसे प्राथमिकता देने का सर्वाधिक बड़ा कारण यह भी है कि राजमा में प्रोटीन के अलावा विटामिन, कार्बोहाइड्रेट की अच्छी मात्रा पाई जाती है।

राजमा को “किडनी बींस“ के नाम से भी जानते है। 

भारत के उत्तराखंड राज्य में राजमा की खेती को प्राथमिक रूप से करते है है। आज प्रत्येक किसान इस क्षेत्र में गेहूं एवं धान से ज्यादा वरीयता राजमा को दे रहा है तथा वहां इन सभी फसलों से ज्यादा उत्पादन ले रहा है। यह कम समय में अधिक मात्रा में मुनाफा देने वाला है। यह एक दलहनी फसल है। जो रबी एवं खरीफ दोनों ही मौसम में उगाई जाती है। राजमा में प्रोटीन की मात्रा 25% तक पाई जाती है ।उत्तराखंड के अलावा उत्तर प्रदेश राज्य में भी राजमा की खेती की जाती है। जैसा कि पहले बताया है कि यह रवि एवं खरीद दोनों की फसल है। अतः यह हर मौसम में प्राप्त की जा सकती है।

राजमा की खेती से होने वाले फायदे

  1. राजमा की सेवन से माइग्रेन की समस्या से निजात पाया जाता है, राजमा में उपस्थित कीलेट और मैग्नीशियम तत्व जो हमारी दिमागी क्षमता को बढ़ाते है। इससे दिमाग से जुड़े काफी रोगों से छुटकारा मिलता है।सिर दर्द जैसी समस्या भी खत्म हो जाती है।
  2. राजमा में फाइबर होता है जो घुलनशील अवस्था में पाया जाता है। यह हमारे शरीर में अधिक मात्रा में कार्बोहाइड्रेट की मात्रा को कम करता है । इस वजह से हमे दमा और मोटापा जैसी बीमारियों से छुटकारा मिलता है।
  3. राजमा के सेवन से ब्लड शुगर लेवल भी नियंत्रण में रहता है। ये हमारी नर्वस सिस्टम को भी नियंत्रित करता है।
  4. राजमा की खेती के लिए भारत सरकार ने भी कई अनुसंधान केंद्र तथा प्रशिक्षण केंद्र खोले हैं। जो अपने-अपने स्तर पर इसकी मात्रा और उत्पादन क्षमता को बढ़ाने के लिए कार्य कर रहे हैं। 


ऐसे करें राजमा की खेती

1. भूमि की तैयारी

  •  भूमि की तैयारी करने के लिए हमें खेत में नमी की आवश्यकता होती है। भूमि की जुताई करने से पहले 15 दिनों के पहले ही हमें अपनी भूमि में पानी की व्यवस्था करनी चाहिए।
  • 15 दिन के पश्चात हमें मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करनी चाहिए। मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करने के पश्चात हमारी मिट्टी एक बार पलट जाती है।
  • उसके पश्चात हमें दो से तीन बार जुताई कल्टीवेटर के माध्यम से करनी चाहिए जिससे मिट्टी में उपस्थित सभी आवश्यक तत्व आपस में मिल जाएं।
  • कल्टीवेटर से जुताई करने के पश्चात हमें पाटा की सहायता से अपनी मिट्टी को भुरभुराकर अपने खेत को समतल कर लेना चाहिए। 

2. जलवायु एवं भूमि

राजमा की खेती हेतु रबी एवं खरीफ दोनों प्रकार की फसलों के समय में लाभदायक फसल होती है। अतः इसके लिए शीतोष्ण एवं समशीतोष्ण दोनों प्रकार की जलवायु लाभकारी होती है। सामान्यतः राजमा की खेती के लिए 10 डिग्री सेंटीग्रेड से 30 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान सही माना गया है| अतः राजमा की खेती के लिए नमी एवं ऊष्मा दोनों की आवश्यकता होती है ।राजमा की खेती के लिए हल्की दोमट मिट्टी से लेकर भारी चिकनी मिट्टी दोनों फायदेमंद है। मिट्टी का पी.एच.मान्य सामान्यता 6.5 से 7.5 चाहिए। तथा इसमें अधिक लवणता की मात्रा हानिकारक होती है ।

3. बुवाई

राजमा की खेती में बुवाई से पहले बीज को उपचारित कर लेना चाहिए। बीज को उपचारित करने के लिए हमें फफूंदनासी थीरम जिसकी मात्रा 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज में मिलाकर बीजों का उपचार करके उन्हें धूप में रखना चाहिए।

इसके पश्चात ही हमें बीजों की बुवाई करना चाहिए। बीज की बुवाई करने से पहले हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हम राजमा की खेती लता के रूप में करना चाहते हैं या झाड़ी के रूप में करना चाहते हैं।

इसके पश्चात हमें बुवाई की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए। बीजों की बुवाई क्यारिया बनाकर करनी चाहिए। जिसमें क्यारियों से क्यारियों के बीच की दूरी 30 से 40 सेंटीमीटर होना चाहिए तथा पौधे से पौधे की दूरी लगभग 10 सेंटीमीटर होना चाहिए। बीज की बुवाई करने से पहले हमें गड्ढे की गहराई लगभग 8 से 10 सेंटीमीटर रखनी चाहिए जिसमें हम बीज बोते हैं ।

बीज बोने के लिए बीज की मात्रा 120 से 140 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से लेना चाहिए। देर से बुवाई करने से बचना चाहिए। ऐसा करने पर उपज में प्रभाव पड़ता है तथा इससे फसल के वानस्पतिक क्षेत्र में हानि होती है।देर करने पर उसकी फलियों की संख्या कम होती है तथा बीज का भार भी कम हो जाता है। अतः समय पर ही हमें बुवाई कर देना चाहिए।

राजमा की खेती में बीजों को हम समतल खेत में उठी हुई क्यारियों या, मेड़ों में कर सकते हैं। झाड़ियों के लिए क्यारियों से क्यारियों के बीच की दूरी लगभग 75 सेंटीमीटर तथा पौधे से पौधे की दूरी 25 से 30 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। इसके बीज को 5 सेंटीमीटर गहराई पर रोपित करना चाहिए।

4. उपयुक्त किस्मों का चुनाव।

हम आपसे कुछ विशिष्ट किस्मों के बारे में चर्चा करेंगे जो राजमा की खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है। जिसमें कम समय में अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त किया जाता है।

  • P.D.R.१४- यह राजमा की खेती के लिए सर्वोत्तम फसल की किस्म है। जो 110 से 120 दिन के अंतराल में पक कर तैयार हो जाती है। 
  • मालवीय 15- राजमा की किस्म 110 में पक कर तैयार हो जाती है। तथा 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से हमें उत्पादन प्रदान करती है।
  • B.l.६३- राजमा की यह किस्म लगभग 120 दिन मैं पक कर तैयार हो जाती है। तथा 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से उत्पादन प्रदान करती है।
  • R.s.j.१७८- राजमा की यह किस्म भी लगभग 110 से 120 दिन में पक कर तैयार हो जाती है ।तथा 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से उत्पादन प्रदान कराती है।
  • I.I.I.p.r. ९६- यह किस्म बहुत महत्वपूर्ण है। जो लगभग 130 दिनों में पक कर तैयार होती है। वहीं 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से उत्पादन प्रदान कराती है।

राजमा कि यह उन्नत और उपयुक्त किस्मे है।जो हमें बड़े पैमाने पर राजमा की उपयुक्त उत्पादन क्षमता प्रदान करती है। 

खाद व उर्वरक की मात्रा

इसकी खेती के लिए देसी खाद के रूप में हमें 15 से 20 टन सड़े गोबर की खाद का प्रयोग करना चाहिए। इसमें संपूर्ण मात्रा में एवं विशेष खनिजों की भरपूर मात्रा होती है जो हमारी फसल के लिए उपयुक्त होती है ।

राजमा की फसल शाकाहारी दलहनी फसल है परंतु यह वातावरण से नेत्र जन उस मात्रा में ग्रहण नहीं कर पाती जिस मात्रा में सभी दलहन फसल प्राप्त करती है। अतः इसके लिए हमें विशेष उर्वरक की आवश्यकता होती है। इसमें विशेष रूप से नाइट्रोजन की मात्रा का होना आवश्यक होता है।


सर्वप्रथम 120 किलोग्राम नाइट्रोजन 60 किलोग्राम फास्फोरस 30 किलोग्राम पोटाश की मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से हमें अपने खेतों में देनी चाहिए। तथा इसी के साथ 30 किलोग्राम सल्फर प्रति हेक्टेयर की दर से हमें हमारी खेत में देना चाहिए।

समय-समय पर खरपतवार का उपचार करते रहना चाहिए। जहां तक हो सके हाथों की सहायता से हमें खरपतवार नियंत्रित करना चाहिए। इसके लिए हम विशेष खरपतवार नासी का भी प्रयोग कर सकते हैं।

हमें हमारे खेतों में समय-समय पर निराई गुड़ाई की आवश्यकता होती है। गुड़ाई होते रहने से हमारी फसल की मिट्टी पलटती रहती है। जिससे उपयुक्त व आवश्यक रूप पर समय-समय पर उन्हें पोषक तत्वों की मात्रा मिलती रहती है तथा हमारी फसल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। निराई कराने से खरपतवार नासी का खर्चा बचता है तथा साथ ही इससे होने वाले हानिकारक प्रभाव से बचा जा सकता है।

पानी की व्यवस्था

राजमा की खेती के लिए जल निकास की व्यवस्था होना फसल पर सीधा प्रभाव डालती है क्योंकि यह दलहनी फसल है।

अतः पानी का इस पर विशेष प्रभाव पड़ता है। इसके लिए हमारे खेतों में नमी रहना अति आवश्यक है। नमी युक्त भूमि होने पर ही हम आवश्यक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं। नमी की कमी होने पर हमारी फसलों में भारी मात्रा में प्रभाव पड़ता है। तथा इससे फलियां झड़ने का डर होता है। जिससे अंकुरण क्षमता में और बीजों की उत्पादन क्षमता में भारी मात्रा में प्रभाव पड़ता है।

सर्वप्रथम जुताई के 15 दिन पहले ही हमें हमारे खेत में सिंचाई की व्यवस्था कर देनी चाहिए। 20 दिन पश्चात हमारे खेतों में पानी की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए। इसके पश्चात राजमा की खेती में चार से पांच बार पानी की व्यवस्था होना अति आवश्यक है।

सिंचाई हेतु नाली बना कर प्रयोग में ला सकते हैं। पानी की व्यवस्था हमारी संपूर्ण फसल को प्रभावित करती है। पानी की समुचित व्यवस्था होने से हम अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं। वहीं पानी की समुचित व्यवस्था ना होने से हमें भारी हानि भी उठानी पड़ सकती है।

बुवाई का समय

राजमा की खेती करने हेतु रवि और खरीफ दोनों प्रकार की फसलों की बुवाई की समय के अनुकूल ही होता है। रवि की फसल के समय बुवाई करने के लिए हमें जून के अंतिम पखवाड़े तक बीज रोपित कर देना चाहिए

खरीफ में अगर हम बुवाई करना चाहते हैं तो नवंबर-दिसंबर के बीच में अर्थात नवंबर के अंतिम पखवाड़े और दिसंबर के प्रथम पखवाड़े के बीच में हमें बुवाई कर देना चाहिए। इसके अलावा बसंत ऋतु में भी हम बुराई कर सकते हैं। मार्च के महीने में बोई जाने वाली फसलें कम समय में अधिक उत्पादन हमें प्रदान करती है।

कीटनाशक

राजमा की खेती में फलियां लगने के पश्चात इसमें कीट का प्रकोप सबसे ज्यादा देखा जाता है। जो इसकी फलियों से गुजरकर पर अंदर तक पहुंच जाता है। तथा यह संपूर्ण फल्ली में एक सुरंग बना लेता है।

जिसके कारण हमारी फसल का बहुत बड़ा हिस्सा प्रभावित होता है। फली कमजोर होकर गिर जाती है।बीजों मैं प्रभाव पड़ता है।फलियों के अंदर जाने पर फलिया कमजोर होने की वजह से बहुत प्रभाव पड़ जाता है इससे से बचने के लिए बाजार में उपलब्ध कीटनासिक की सहायता से हम इसका उपचार कर सकते हैं।

महत्वपूर्ण सावधानियां

राजमा की खेती हेतु महत्वपूर्ण सावधानियां रखने की आवश्यकता होती है, जिनमें कुछ निम्नलिखित हैं।

  • राजमा राजमा की खेती के लिए उचित तापमान की आवश्यकता होती है।
  • पानी के नियोजन और उसकी बहाव एवं जल निकासी की आवश्यकता होती है।
  • सही किस्म का चुनाव आवश्यक होता है।
  • जिस समय पर हम फसल बोने जा रहे हैं समय निश्चित हो इसका ध्यान रखना आवश्यक है।
  • जिस फसल में हम राजमा की खेती कर रहे हैं। निश्चित समय पर बुवाई आवश्यक होती है।
  • समय समय पर निराई और गुड़ाई की आवश्यकता होती है।
  • यह दलहनी फसल है परंतु इसकी गांठ में राइजोबियम जीवाणु नाइट्रोजन ग्रहण करने में अक्षम होता है अतः उर्वरक की मात्रा देना आवश्यक होता है।

कटाई

  • राजमा की खेती के अंत में जब फसल पककर तैयार हो जाती है। तो उसकी हरी पत्तियां भूरे रंग की हो जाती है। तथा उन फलियों में बीज उठकर तैयार हो जाते हैं।
  • यह बीज दिखने में लाल या कत्थई कलर के होते हैं तथा किडनी के जैसे दिखाई प्रतीत होते हैं अतः इन्हें किडनी बींस के नाम से भी जाना जाता है।
  • इन्हें हम काटकर सर्वप्रथम धूप में रखते हैं। दो-तीन दिन धूप लगने के पश्चात इन फलियों में से दाना अलग करना अनुकूल होता है।
  • हरी फलियो का प्रयोग हम सब्जी के रूप में कर सकते हैं ।तथा राजमा का प्रयोग भी बहुत ही स्वादिष्ट व्यंजन पकाने में होता है।
  • बाजार में राजमा बहुत अच्छे दामों पर विक्रय होता है। जिससे हमारे लागत मूल्य में वृद्धि होती है। 


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